समय का महत्त्व


हरिप्रसाद नाम का एक राज मिस्त्री था। वह दिन भर मेहनत-मजदूरी करता, तब बड़ी कठिनाई से अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाता था। हरिप्रसाद कर्मठ, ईमानदार तथा विचारशील व्यक्ति था। हरिप्रसाद का एक पुत्र था- समीर ।


हरिप्रसाद को समीर से बहुत आशाएँ थीं। अभी वह कक्षा पाँच में पढ़ता था। हरिप्रसाद उसकी शिक्षा व लालन-पालन में कोई कमी न छोड़ता था । उसे स्वयं के न पढ़ पाने का बहुत दुख था। वह चाहता था कि उसका बेटा रेत-चूने में अपना जीवन न बिताए, अपितु पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बने, समाज में नाम करे। परंतु आजकल समीर को जैसे क्रिकेट का बुखार चढ़ा हुआ था। उसका मन पढ़ने-लिखने में न लगता था। सारा दिन वह खेलता रहता। उसे समय के महत्त्व का तनिक भी पता न था।


एक दिन हरिप्रसाद ने उसे स्कूल जाने से रोक दिया। इस पर समीर बहुत खुश हुआ। सोचा, दिन भर क्रिकेट खेलूँगा। परंतु शीघ्र ही उसकी खुशी जाती रही। हरि प्रसाद ने उसे अपने साथ काम पर चलने को कहा। उसे यह सब अच्छा तो न लगा। मरे मन से वह अपने पिता के साथ चल पड़ा। हरिप्रसाद इन दिनों एक मकान बनाने में लगा हुआ था। उसने समीर को ईंट ढोने का काम सौंप दिया।


समीर दिन भर ईंटें ढोता रहा। हरिप्रसाद उसके द्वारा लाई गई प्रत्येक ईंट को पहले तोड़ डालता, फिर उसी से दीवार की चिनाई करता। अपने पिता के काम करने का यह ढंग

समीर को कड़ा अजीब लगा। आखिर उसने पिता को बीच में ही रोक दिया। यह क्या हैपी तोड़-तोड़कर दीवार खड़ी करने से क्या लाभ होगा? ऐस दीवार और बहुत कमजोर हो जाएगी।


उसी प्रकार कार्य करता रहा। उसने समोर की बात का कोई उत्तर न दिया। समोर कोई उत्तर न पाकर भी अपने काम में जगा रहा परंतु उसे उसका प्रश्न कपटता कि वहाँ पूरे आकार की ईंट रखकर मिनाई की जा सकता है, वहाँ उसके पिता अकारण ही ईंट तो क्यों रहे हैं। के समय जब पिता पुत्र काम से घर लौटे तो मार्ग में समीर ने पुनः अपना प्रश्न हराया "पिताजी, आपने दीवार की बनाई क्यों की जबकि साबुत हो रखी जा सकता था?"


उसे कुछ क्षण ताकता था. फिर मुस्कराकर बोला, "बढ़े, जिस प्रकार एक-एक ईंट में दीवार खड़ी होती है, उसी प्रकार एक-एक क्षण से जीवन बनता है। तुमने देखा, टूटी-फूटी ईटों से बनी दीवार कितनी बेकार और कमजोर बनती है? अब स्वयं ही सोचो, बरवाद किए गए समय से बना जीवन कैसा होगा? यह सुनकर समौर की आँखें खुल गई। उसे समय के महत्त्व का बोध हो गया था

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