डॉ० कलाम (मिसाइल मैन) की आत्मकथा
डॉ० कलाम भारत के पूर्व राष्ट्रपति है। वे एक महान वैज्ञानिक भी है। इसी कारण उन्हें 'मिसाइल मैन के नाम से भी जाना जाता है। प्रस्तुत अध्याय उनकी एक आत्मकथा है। आइए पढ़ें।
मेरा जन्म मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के रामेश्वरम् कस्बे में एक मध्यमवर्गीय तमिल परिवार में हुआ था। मेरे पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और न ही वे कोई बहुत धनी व्यक्ति थे। इसके बावजूद वे बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी। मेरी माँ, आशिसम्मा, उनकी आदर्श जीवन संगिनी थीं।
मैं कई बच्चों में से एक था। लंबे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण सा दिखने वाला बच्चा । हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। रामेश्वरम् में मस्जिदवाली गली में यह चूने पत्थर व ईंट से बना पक्का और बड़ा घर था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी आवश्यक एवं ऐशोआराम वाली चीजों से दूर रहते थे। लेकिन घर में सभी आवश्यक वस्तुएँ समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थीं। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चिंतता और सादेपन से बीता। भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही तरह से।
मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता विछाती थी और फिर उस पर चावल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट सांभर देती, साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताजी चटनी भी होती।
हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मस्जिद थी, जहाँ शाम को नमाज के लिए मेरे पिताजी मुझे अपने साथ ले जाते थे। अरबी में जो नमाज अदा की जाती थी, उसके बारे में मुझे कुछ पता तो नहीं था, लेकिन यह पक्का विश्वास था कि ये बातें ईश्वर तक अवश्य पहुँच जाती है। जब मैंने पिताजी से नमाज प्रासंगिकता के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, “जब तुम नमाज पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रह्मांड का एक हिस्सा बन जाते हो, जिसमें दौलत, आयु, जाति या धर्म-पंथ का कोई भेद-भाव नहीं होता।"
हर बच्चा एक विशेष आर्थिक-सामाजिक और भावनात्मक परिवेश में कुछ वंशानुगत गुणों के साथ जन्म लेता है, फिर संस्कारों के अनुरूप उसे ढाला जाता है। मुझे अपने पिता से विरासत के रूप में ईमानदारी और आत्मानुशासन मिला तथा मोमें ईश्वर में विश्वास और करुणा का भाव। यही गुण मेरे तीनों भाई-बहनों को भी विरासत में मिले।
लेकिन मैंने जलालुद्दीन और शमसुद्दीन के साथ अपना जो समय गुजारा। उसका बचपन में अद्वितीय योगदान रहा और इसी के रहते मेरे जीवन में सारे बदलाव आए। स्कूली शिक्षा नहीं होने के बाद भी जलालुद्दीन और शमसुद्दीन इतनी सहज बुद्धि के थे और मेरे अकथनीय संदेशों का यो झट से जवाब दे देते थे कि बचपन में मैं बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी सृजनात्मकता को उनके बीच रख सका।
मेरे बहनोई जलालुद्दीन मुझसे करीब पंद्रह साल बड़े थे और मुझे आजाद कहकर पुकारा करते थे। हम दोनो रोजाना शाम को दूर तक साथ घूमने जाया करते थे। हम मस्जिदवाली गली से निकलते और समुद्र के रेतीले तट पर चल पड़ते। मैं और जलालुद्दीन प्रायः आध्यात्मिक विषयों पर बातें करते। रास्ते में हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था। इस मंदिर की हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा करते, जितनी श्रद्धा से देश के किसी हिस्से से आया कोई भी तीर्थयात्री करता है और इस परिक्रमा के बाद हम अपने शरीर को बहुत ही ऊर्जावान महसूस करते।
पूरे इलाके में सिर्फ जलालुद्दीन ही थे जो अंग्रेजी में लिख सकते थे। जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों, वैज्ञानिक खोजों, समकालीन साहित्य और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बताते रहते थे। वही थे, जिन्होंने मुझे सीमित दायरे से निकालकर नई दुनिया का बोध कराया। दूसरे जिस व्यक्ति का मेरे बाल जीवन पर गहरा असर पड़ा, वह मेरे चचेरे भाई। शमसुद्दीन थे। वह रामेश्वरम् में अखबारों के एकमात्र वितरक थे। अखबार रामेश्वरम् स्टेशन पर सुबह की ट्रेन से पहुँचते थे, जो पामबन से आती थी।
सन् 1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा तब मैं आठ वर्ष का था। विश्व युद्ध का हमारे यहाँ जरा भी असर नहीं था।लेकिन जल्दी ही भारत पर भी मित्र देशों की सेनाओं में शामिल होने के लिए दबाव डाला गया और देश में एक तरह का आपातकाल घोषित कर दिया गया। उसका पहला नतीजा इस रूप में सामने आया कि रामेश्वरम् स्टेशन पर गाड़ी का ठहरना बंद कर दिया गया। ऐसी स्थिति में अखबारों के बंडल रामेश्वरम् धनुषकोडि के बीच रामेश्वरम् रोड पर चलती ट्रेन से गिरा दिए जाते थे। तब शमसुद्दीन को ऐसे मददगार की तलाश हुई, जो अखबार के गिरे हुए बंडलों को उठाने में उनका हाथ बँटा सके। स्वाभाविक है, मैं ही मददगार बना। इस तरह शमसुद्दीन से मुझे अपनी पहली तनख्वाह मिली। आधी शताब्दी गुजर जाने के बाद आज भी मैं अपने द्वारा कमाई पहली तनख्वाह पर गर्व करता हूँ।
बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे। रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिवप्रकाशन। ये तीनों ही ब्राह्मण परिवारों से थे। रामानंद शास्त्री तो रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पंडित लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था। अलग-अलग धर्म, पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई को लेकर हममें से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेद-भाव महसूस नहीं किया।
जब मैं रामेश्वरम् के प्राइमरी स्कूल में पाँचवीं कक्षा में था तब एक दिन एक नए शिक्षक हमारी कक्षा में आए। मैं टोपी पहना करता था जो मेरे लिए मुसलमान होने का प्रतीक था। कक्षा में मैं हमेशा आगे की पंक्ति में जनेऊ पहने रामानंद शास्त्री के साथ बैठा करता था। नए शिक्षक को एक हिंदू लड़के का मुसलमान लड़के के साथ बैठना अच्छा नहीं लगा।
उन्होंने मुझे उठाकर पीछे वाली बेंच पर चले जाने को कहा मुझे बहुत बुरा लगा। रामानंद शास्त्री को भी यह बहुत खला। मुझे पीछे की पंक्ति में बैठाए जाते देख वह काफी उदास नजर आ रहा था। उसके चेहरे पर जो आसी के भाव थे, उनकी मुझ पर गहरी छाप पड़ी । स्कूल की छुट्टी होने पर हम घर गए और सारी घटना अपने घरवालों को बताई। यह सुनकर लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक को बुलाया और कहा कि उसे निर्दोष बच्चों के दिमाग में इस तरह सामाजिक असमानता एवं सांप्रदायिकता का विष नहीं घोलना चाहिए। हम सब भी उस वक्त वहाँ मौजूद थे। लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक से साफ-साफ कह दिया कि या तो वह क्षमा माँगे या फिर स्कूल छोड़कर यहाँ से चला जाए। उस शिक्षक ने अपने किए व्यवहार पर न सिर्फ दुःख व्यक्त किया बल्कि लक्ष्मण शास्त्री के कड़े रुख एवं धर्मनिरपेक्षता में उनके विश्वास से उस नौजवान शिक्षक में अंततः बदलाव आ गया।
द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हो चुका था और भारत की आजादी भी बहुत दूर नहीं थी। गाँधीजी ने ऐलान किया, “भारतीय स्वयं अपने भारत का निर्माण करेंगे।" पूरे देश में अप्रत्याशित उम्मीदें थीं। मैंने अपने पिताजी से रामेश्वरम् छोड़कर जिला मुख्यालय रामनाथपुरम् जाकर पढ़ाई करने की अनुमति माँगी।
उन्होंने सोचते हुए कहा, “तुम्हें आगे बढ़ने के लिए जाना होगा। हमारा प्यार तुम्हें बांधेगा नहीं और न ही हमारी जरूरतें तुम्हें रोकेंगी।" मेरी हिचकिचाती हुई माँ को उन्होंने खलीन जिवान का हवाला देते हुए कहा, "तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं। वे तुम्हारे जरिए आते हैं, लेकिन तुमसे नहीं आते। तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो, लेकिन अपने विचार नहीं। उनके खुद के अपने विचार होते हैं।"
रामनाथपुरम् कस्बा समृद्ध होते हुए भी बनावटीपन में जीता समाज था। इसकी आबादी करीब पचास हजार थी। लेकिन रामेश्वरम् जैसी सुसंगति और सद्भाव यहाँ नहीं था। मुझे घर की बड़ी याद आती और मैं रामेश्वरम् जाने का हर मौका तलाशता रहता। घर की बहुत याद आने के बावजूद मैं नए माहौल में रहकर पिताजी के सपने को साकार करने के प्रति कटिबद्ध था क्योंकि मेरी सफलता से पिताजी की बहुत उम्मीदें जुड़ी थी। पिताजी मुझे कलेक्टर बना देखना चाहते थे और मुझे लगता था कि पिताजी के सपने को साकार करना मेरा फर्ज है।
जलालुद्दीन मुझसे हमेशा सकारात्मक सोच की शक्ति की बात किया करते थे और जब भी मुझे घर की याद आती या मैं उदास होता तो मैं प्रायः उनकी कही बातों को मन में याद कर लेता। उनके कहे अनुसार मैने अपने मन के विचारों एवं मस्तिष्क को स्थिर रखने तथा लक्ष्य को पाने के लिए कठोर परिश्रम किया। मैं रामेश्वरम् नहीं लौटा बल्कि अपने घर से और दूर चला गया।
अग्नि मिसाइल का प्रक्षेपण 22 मई, 1989 को निर्धारित किया गया। प्रक्षेपण से पहले वाली रात को डॉ० अरुणाचलम्, जनरल के० एन० सिंह और मैं रक्षामंत्री के साथ घूम रहे थे, जो आई० टी० आर० अग्नि का प्रक्षेपण देखने आए थे। उस दिन पूरी चाँदनी रात थी। ज्वार पूरे जोरों पर था। लहरें एक-दूसरे से टकराकर शोर पैदा कर रही थीं। क्या कल होने वाले अग्नि प्रक्षेपण में हम कामयाब रह पाएंगे ? यह सवाल हम सबके दिमाग में घूम रहा था। लेकिन हममें से कोई भी उस चाँदनी रात के सन्नाटे को तोड़ना नहीं चाहता था। लंबी चुप्पी तोड़ते हुए रक्षामंत्री ने आखिरकार मुझसे पूछ लिया, "कलाम कल अग्नि की सफलता पर तुम मुझसे क्या तोहफा लेना पसंद करोगे ?" यह एक साधारण सवाल था जिसका जवाब मैं तत्काल नहीं सोच सका। ऐसा क्या चाहूँ जो मेरे पास नहीं है ? मुझे खुशी किससे मिल सकती है ? और तब मुझे जवाब मिल गया, "हमें आर० सी० आई० में एक लाख छोटे पौधे लगाने की जरूरत है," मैने कहा । "तुम 'अग्नि' की सफलता के लिए धरती माँ का आशीर्वाद ले रहे हो," रक्षामंत्री ने पलट कर कहा । "हम कल जरूर सफल होंगे," उन्होंने कहा।
अगले दिन सुबह सात बजकर दस मिनट पर 'अग्नि' को छोड़ा गया। यह पूरी तरह सफल प्रक्षेपण था। यह किमी दुःस्वप्न वाली रात के बाद खूबसूरत सुबह में जागने जैसा था। यह मेरे जीवन का सबसे सुखद क्षण था।
वर्ष 1999 के गणतंत्र दिवस पर राष्ट्र ने अपने मिसाइल कार्यक्रम की सफलता पर खुशी मनाई। मुझे और डॉ० अरुणाचलम् को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। मुझे एक दशक पूर्व मिले पद्म भूषण की यादें ताजा हो आईं। मैं आज करीब-करीब वैसे ही रहता हूँ, जैसे उस समय रहता था- दस फीट चौड़ा, बारह फीट लंबा कमरा, मुख्य रूप से किताबों से सजा हुआ, कागज के पुलिंदे और थोड़ा-सा फर्नीचर मेस का बैरा मेरे लिए इडली और छाछ का नाश्ता लेकर आया । वह मुस्कराया और मुझे बधाई दी। मेरे देश के लोगों द्वारा मेरे काम को प्रदान की गई मान्यता मुझे छू गई। बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और इंजीनियर देश छोड़कर पैसा कमाने के लिए विदेश चले जाते हैं। यह सही है कि उन्हें निश्चित ही वहाँ पैसा काफी मिलता है, लेकिन अपने देश के लोगों के प्रेम और सम्मान की क्या कोई भरपाई कर सकता है ?
What a nice thought of Dr Kalam
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