ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य
भगवान ब्रह्मा के अवतार हैं ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य
पौराणिक कथाओं के अनुसार याज्ञवल्क्य ऋषि को भगवान ब्रह्मा का अवतार माना जाता है। कहा जाता है कि एक बार ब्रह्माजी द्वारा यज्ञ में पत्नी सावित्री की जगह गायत्री को स्थान देने पर सावित्री ने उन्हें मानव रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया। इस आप के कारण ही उनका जन्म चारण ऋषि के यहां याज्ञवल्क्य के रूप में हुआ। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार ये देवरात के पुत्र थे। इनका जन्म फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को हुआ था। परम् विदुषी 'मैत्रेयी' याज्ञवल्क्य की ही पत्नी थीं।
याज्ञवल्क्य ने महर्षि वैशम्पायन से शिक्षा ग्रहण की। सात वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने वेदों की सारी ऋचाओं को कंठस्थ कर लिया था। इन्होंने उद्धालक आरुणि ऋषि से अध्यात्म, ऋषि हिरण्यनाम से योगशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। ऋग्वेद का विशेष अध्ययन इन्होंने गुरु शाकल्य के आश्रम में जाकर किया।
एक बार इनका अपने गुरु वैशम्पायन से विवाद हो गया। इससे क्रोधित होकर गुरु ने याज्ञवल्क्य को शिष्य पद से हटा दिया और उन्हें अपने द्वारा दिया गया ज्ञान भी लौटाने को कहा। गुरु के निर्णय को स्वीकार करते हुए याज्ञवल्क्य ने उन्हें सारा ज्ञान लौटा दिया। उस ज्ञान को गुरु के अन्य शिष्यों ने तीतर पक्षी के रूप में ग्रहण कर लिया। शिष्यों द्वारा तीतर पक्षी के रूप में ग्रहण किए जाने के कारण यजुर्वेद की यह शाखा 'तैत्तिरीय संहिता' के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इस घटना के पश्चात ज्ञान से रहित हो जाने के कारण याज्ञवल्क्य ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की। सूर्य ने अश्व रूप धारण करके उन्हें 'यजुर्वेद' के उन मंत्रों की दीक्षा दी, जिसका ज्ञान अभी तक किसी को नहीं था। अश्व रूप में सूर्य से प्राप्त होने के कारण शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा 'वाजसनेयि माध्यन्दिन, 'संहिता' और दूसरी 'काण्व संहिता' के नाम से जानी गई। शुक्ल यजुर्वेद- संहिता के मुख्य मंत्रद्रष्टा महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। इस संहिता में चालीस अध्याय हैं। सभी पूजा आदि धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों में इसके मंत्र प्रयोग होते हैं। 'रुद्राष्टाध्यायी' भी इसी संहिता में है। इनका दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'शतपथ ब्राह्मण' है। 'बृहदारण्यक उपनिषद् इसी का भाग है। यह उपनिषद् राजा जनक के दरबार में 'याज्ञवल्क्य' और 'गार्गी' के बीच हुए संवाद पर आधारित है।
वैदिक काल के सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य का यह कथन 'जिस क्षण मन में वैराग्य उत्पन्न हो जाए, तभी संन्यास लिया जा सकता है।' आज भी संन्यास का मूल आधार माना जाता है।
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