महर्षि अगस्त्य समुद्र पी गए
पौराणिक काल में महर्षि अगस्त्य नाम के एक महान त्यागी, तपस्वी और तेजस्वी ऋषि हुए। उनके संकल्प के सामने कोई टिक न पाता था।
एक बार विंध्याचल पर्वत गर्व से उन्मत्त हो ऊपर की ओर उठने लगा। वह ऊँचा, और ऊँचा उठता चला गया। यहाँ तक कि सूर्य का मार्ग भी रुकने लगा। ऐसा लगने लगा जैसे देश के दो भागों के बीच विशाल दीवार खड़ी हो गई हो।
महर्षि अगस्त्य को दक्षिण की ओर जाना था। मार्ग में विंध्याचल पड़ता था। सो वे मार्ग में पड़ने वाले विंध्याचल के सामने जा खड़े हुए। विंध्याचल ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और आने का कारण पूछा। महर्षि बोले, “मुझे दक्षिण की ओर जाना है परंतु तुम्हारे कारण मेरा मार्ग रुक गया है। मुझे आगे जाने का मार्ग दो।'
विध्याचल महर्षि का कोपभाजन नहीं बनना चाहता था। उसे ऋषि के तपोबल का भान था। वह उनके चरणों में दंडवत् लेट गया। जाते समय ऋषि ने पर्वत से कहा, "जब तक में वापस • लौटकर न आऊ, तुम इसी प्रकार रुके रहना।" विंध्याचल ने उन्हें वचन दिया, परंतु ऋषि एक बार दक्षिण गए तो फिर लौटकर वापस नहीं आए और वहीं बस गए। उस दिन से आज तक विंध्याचल उसी प्रकार झुका हुआ है। इस प्रकार ऋषि के तपोबल ने देश को दो में बँटने से बचा लिया।
एक दिन की बात है, महर्षि अगस्त्य प्रातः के समय समुद्र में स्नान करके लौट रहे थे। उन्होंने देखा कि एक नन्हीं चिड़िया समुद्र में स्नान करती और चाच में समुद्र का पानी भरती तथा उस पानी को रेत में उड़ेल देती। जो बालू उसके शरीर में लग जाती, उसे वह समुद्र में झाड़कर गिरा देती। निरंतर उसे इस कार्य में संलग्न देख ऋषि आश्चर्य में पड़ गए। वे समझ नहीं पाए कि आखिर बात क्या है ?
दूसरे दिन जब ऋषि समुद्र में स्नान करने गए, तब भी उस चिड़िया को उसी कार्य में लगा पाया। चिड़िया पूरी लगन और श्रम से एक ही कार्य बार-बार दोहरा रही थी। महर्षि से रहा न गया और उससे पूछ बैठे, “यह क्या कर रही हो ?"
चिड़िया ने बिना कार्य रोके उत्तर दिया, “महर्षि, आप स्वयं देख रहे हैं, मैं बहुत व्यस्त हूँ। क्षमा करें, तनिक भी विश्राम मेरे कार्य में विघ्न डालेगा। मुझे क्षण भर भी बात करने की ही फुरसत नहीं है। "
महर्षि को यह सब सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उनसे कभी किसी ने इस प्रकार उपेक्षित भाव से बात नहीं की थी। फिर भी उन्हें जिज्ञासा हुई। अपमान बोध न करते हुए उन्होंने फिर कहा, “मुझे अपनी बात बताओ। संभवत: मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँ।"
“ऋषिवर, मेरा अपराध क्षमा करें। समुद्र मेरे अंडे बहा ले गया है। मैंने इससे विनती की, परंतु इस कठोर आततायी को मुझ पर दया नहीं आई। इसने मेरी प्रार्थना को ठुकरा दिया, " कहकर चिड़िया रोने लगी।
"परंतु, अब तुम क्या कर रही हो ?" महर्षि ने पूछा।
“मैंने दृढ़ निश्चय किया है कि मैं सारा समुद्र उड़ेल दूँगी। समुद्र को पाट दूँगी। जब तक यह नहीं कर लूँगी, चैन नहीं लूँगी, " चिड़िया बोली।
महर्षि अगस्त्य उसकी वीरता और संकल्प से प्रभावित हुए। उन्होंने समुद्र से उसके अंडे लौटा देने को कहा। परंतु घमंडी समुद्र पर महर्षि के वचनों का कोई प्रभाव न हुआ। उसने चिड़िया के अंडे न लौटाए।
महर्षि को क्रोध आ गया। वे बोले, “समुद्र! तुम प्रार्थना के योग्य नहीं हो। तुम्हें दंड मिलना चाहिए। भगवान राम ने तुम्हें धनुष पर बाण चढ़ाकर सोख लेने का निर्णय लिया था और तुमने भयभीत होकर उनसे प्रार्थना की, तब तुम पर पुल बाँधा गया। आज मैं तुम्हें पूरा पी जाऊँगा, " कहकर महर्षि ने समुद्र का सारा जल आचमन कर लिया।
अब समुद्र गिड़गिड़ाकर उनसे प्रार्थना करने लगा। उसने चिड़िया के अंडे वापस कर दिए और महर्षि ने उसे क्षमा कर दिया।
यह वृत्तांत इस धारणा को सुनिश्चत करता है कि जब नन्हा प्राणी भी दृढ़ निश्चय कर लेता है, है तो भगवान भी किसी-न-किसी रूप में उसकी सहायता करते हैं।
Post a Comment