बेपेंदी का लोटा

आपने मिर्जापुर का बना गोल पेंदी का लोटा देखा है ? वह तनिक-सा हिलते ही चाहे जिधर लुढ़क जाया करता है। जिन लोगों का कोई सिद्धांत नहीं होती, वे पल-पल बात बदलते रहते हैं। आज एक बात, कल दूसरी बात। ऐसे लोगों को बेपेंदी का लोटा कहा जाता है। इसी पर एक कथा प्रचलित है।

एक राजा था। उसका एक मुँह लगा मंत्री था। मंत्री सदा ही राजा की चाटुकारी करता। वह राजा की हाँ में हाँ और ना में ना किया करता रहता था।

एक समय की बात है, राजा शाही बगीचे में टहल रहा था। मंत्री भी राजा के पीछे-पीछे था। राजा पेड़ की छाँव में बैठ गया और कुछ सोचने लगा। मंत्री भी खड़ा होकर उसी प्रकार सोचने लगा।

राजा मंत्री जी, मुझे एक विचार सूझा है सारा जीवन यूँ ही व्यतीत हो गया, अब कुछ धर्म अर्जित कर लिया जाए क्यों न कल गंगा स्नान के लिए चलें ?

मंत्री वाह वाह महाराज! आपने तो मेरे मुँह की बात ही छीन ली। बहुत शुभ विचार है महाराज। आपके पूर्वज तो वर्ष में कई-कई बार गंगास्नान किया करते थे। अवश्य चला जाए।

राजा तो मंत्री जी, कोई शुभ मुहूर्त निकलवाइए ।

मंत्री - मुहूर्त की क्या बात महाराज! सबसे बड़ा मुहूर्त तो इच्छा है। महाराज की इच्छा हुई कि

मुहूर्त निकल गया।

राजा - मंत्री जी, सवारी का प्रबंध कीजिए।

मंत्री हाँ महाराज! गंगाजी बहुत दूर हैं, सवारी तो चाहिए ही। बताइए, महाराज को कौन-स सवारी पसंद है ?

राजा कौन-सी सवारी ठीक रहेगी ?


मंत्री - सवारी तो वही ठीक रहेगी जिसमें  सुविधा हो। राजा मंत्री जी, हाथी कैसा रहेगा ? 

मंत्री - महाराज, हाथी की सवारी का क्या कहना! अति उत्तम! वाह, महाराज ने क्या विचारकर सवारी की पहचान की है। राजाओं की सवारी तो हाथी ही है। शान से चलता हाथी क्या कभी किसी की परवाह करता है? बिल्कुल राजसी चाल राजा की सवारी है तो बस हाथी ही। आगे-पीछे अनुचरों की भीड़ और हौदा कसा हाथी ।

राजा - परंतु मंत्रीजी, गंगाजी तो बहुत दूर हैं। चींटी की चाल से चलता हाथी महीनों में गंगा तट पहुँचेगा।

मंत्री बिल्कुल ठीक कहते हैं महाराज! हाथी से अधिक सुस्त जानवर दूसरा नहीं है। राजा मंत्री जी, कहिए ऊँट कैसा रहेगा ?

मंत्री - ऊँट, ऊँट तो उत्तम सवारी है महाराज ! रेगिस्तान का जहाज जब धूल उड़ाता चलता है। तो मीलों की मंज़िल घंटों में नाप देता है। राजा ने कहा

राजा परंतु मंत्री जी, यह भी तो कई दिनों का खटराग है। चलते हुए ऊँट इतना हिलता है कि हमारी कमर टूट जाएगी और कूबड़ निकल आएगा)

मंत्री - महाराज, ऊँट भी कोई सवारी है। न चाल, न जाति। मैं तो गधे और ऊँट में कोई भेद नहीं मानता। देखने में भी कितना भद्दा लगता है। भला यह भी कोई राजा-महाराजाओं की सवारी है।

राजा - मंत्री जी, घोड़े के बारे में आपका क्या विचार है ?

मंत्री हाँ महाराज। मैदान हो या पहाड़, घोड़े से बेहतर सवारी कोई नहीं। सरपट दौड़ा चला जाता है। वीरों की सवारी है। जहाँ चाहे रुकिए, जब चाहे चलिए। न कोई सामान न व्यर्थ का झंझट ।

राजा परंतु मंत्री जी, एक झंझट है। घोड़े पर तो कायदे से ही बैठना पड़ेगा। आप जानते ही हैं कि गंगा यात्रा है तो घंटों की। इतने समय तक धूप और धूल में घोड़े पर यात्रा और वह भी कायदे से बैठकर, नाना-ना ।

मंत्री - सो तो है महाराज! काठ और काठी पर भला कैसा आराम! ऊपर से धूप, धूल और वर्षा का भी बचाव नहीं, जाने कब खाई खंदक में फेंक दे।

राजा मंत्री जी, जब तक किसी उपयुक्त सवारी का विचार नहीं सूझता, गंगा स्नान की बात रहने दें। (राजा उठकर चल देता है।)

मंत्री (राजा के पीछे चलते हुए) यह ठीक रहेगा महाराज! जब भीतर ही आनंद की गंगा  बहती है तो गंगा तट पर स्नान करके क्या पुण्य प्राप्त होगा ? कहा भी गया है - मन चंगा तो कठौती में गंगा ।

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